
कश्मीर की हसीन वादियां एक पल के लिए जन्नत जैसी लगती हैं, लेकिन इस बार वहां से लौटी एक यात्रा ने कानपुर के रघुबीर नगर में मातम की चादर फैला दी। शुभम द्विवेदी, जो अपने परिवार के साथ कुछ सुकून के पल बिताने, बर्फ में तस्वीरें खिंचवाने और जिंदगी के यादगार लम्हों को समेटने गया था… वो अब कभी लौट कर बात नहीं करेगा। उसकी मुस्कान अब सिर्फ तस्वीरों में रह गई है।
बुधवार देर रात जब शुभम का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटा हुआ उसके घर पहुंचा, तो मानो मोहल्ले की हवा भी ठहर गई। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि जिस बेटे को खुशी-खुशी विदा किया था, वो अब चुपचाप लकड़ी की पेटी में लौटेगा। उसकी पत्नी ऐशान्या फूट-फूट कर रो रही थी। वो बार-बार कह रही थी – “मेरे सामने इन्हें गोली मारी, मुझे क्यों नहीं मारी?” उसकी आंखों में सवाल थे… और उन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं थे।
ऐशान्या ने उस दिन शुभम की वही शर्ट पहन ली, जो उसकी सबसे पसंदीदा थी। शायद वो चाहती थी कि शुभम उसे आखिरी बार उसी रूप में देखे, जैसा उसे पसंद था। वो शव के पास बैठी रही, कभी उसे चूमती, कभी थाम लेती। उसके आंसू रुक नहीं रहे थे। बीच-बीच में वो बेहोश हो जा रही थी, लेकिन होश में आते ही फिर से वहीं लौट जाती – अपने उस पति के पास, जो अब सिर्फ उसकी आंखों की नमी बन चुका था।
गुरुवार सुबह तक रघुबीर नगर की हर गली में सन्नाटा पसरा था, लेकिन उस सन्नाटे में हर घर से सिसकियां आती रहीं। शुभम का अंतिम सफर उसकी मां की चीखों, पिता की लाचार निगाहों और गांव के सैकड़ों लोगों की आंखों के आंसुओं के बीच निकला। ड्योढ़ी घाट पर जब उसे अंतिम विदाई दी गई, तो लोग चिलचिलाती धूप में भी हाथों में तिरंगा लेकर पहुंचे। सबका बस एक ही कहना था – “शुभम ने क्या बिगाड़ा था?”
वो आतंकवादी जो सेना की वर्दी में आए थे, उन्होंने धर्म पूछ कर गोलियां चलाईं। बायसरन घाटी में हुए उस कायराना हमले में 26 मासूमों की जान गई। शुभम उनमें एक था। वह भी, जिसकी अभी सिर्फ दो महीने पहले ही शादी हुई थी। जिसकी आंखों में अभी ढेरों सपने थे। जिसकी गोद में अभी उसके दो छोटे बच्चों ने खिलखिलाना शुरू किया था।